Friday, 23 April 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-12


 बारहवाँ भाग 

सुबह को नींद से जागा जरुर था लेकिन नींद मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। मैंने बिस्तर न छोड़ने का फैसला किया। सिरहाने तकिये के नीचे रखी घडी को हाथ में लेकर अर्ध खुली आँखों से देखा, नौ बज चुके थे। चाय की तलब लगी, मुश्किल ये थी कि चाय कौन बनाये? खुद ही खड़ा होना था, खड़ा हुआ, टॉयलेट का रुख किया। फारिग होकर ब्रुश किया। ब्रुश करते हुए याद आया, जब छोटा था तो माँ ब्रुश करने के नाम पर कितना डांटती थी, कितनी ही बार मुझे मार पड़ती थी, माँ बोलती थी, सारे दांत पीले पड़ जायेंगे, रोज ब्रुश किया कर। मैं हँस दिया, जाने क्या-क्या याद हो आता है, एक बार सिलसिला बना तो जाने क्या-क्या याद आने लगा। मैंने फिर से घडी को देखा, अभी उठे हुए आधा घंटा ही हुआ था। चाय के लिए गैस के स्टोव पर भगोना चढ़ा दिया, चाय बना फिर से बिस्तर पर पड़ गया, आधा लेटे हुए चाय की चुस्कियाँ लेता रहा।

मुझे याद आया बचपन, कैसे पेट के बल सरक-सरक कर चलता था, बुढाना का इलाज, मुझे लगा उस रोज डॉ. के साथ बदतमीजी न की होती तो आज मैं सबकी तरह चल फिर सकता था, मैं कर भी क्या सकता था, बच्चा ही तो था, क्या सही है क्या गलत है इसका अहसास तक नहीं था, फिर समाज के ताने, माँ के ऊपर चार-चार बच्चो का बोझ, घर की माली हालत, छोटी सी नौकरी, पिताजी भी क्या-क्या करते, सबकी पढाई का खर्ज चलाते या फिर सब कुछ मेरे इलाज पर ही खर्च कर डालते। मुझे याद आया, आधा मकान मेरे जन्म से पहले ही पक्का बन गया था लेकिन आधा मकान कच्चा था जिसे तोड़कर पक्का बनवाया जा रहा था, सब जगह उबड़-खाबड़ हो रहा था, मेरी जिज्ञासा हुई कि देखूँ- मिस्त्री लोग काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं, अभी दो-चार कदम ही आगे रखें होंगे कि पैर फिसल गया था, आँख के एकदम करीब ईंट का किनोर लगा और खून की धारा बह निकली, मैं बहुत जोर से रोया, रोने की आवाज सुनकर माँ आई, माँ ने देखा कि आँख से खून आ रहा है, माँ गुस्से में थी, दो-चार चांटे लगा दिए, और चिल्लाने लगी थी-“जब तेरे बस की कुछ नहीं है, तो तू वहाँ गया ही क्यों था।“

मिस्त्री ने कहा- आप इसे डांट रही हैं इसकी आँख के बराबर से खून बहा रहा है पहले उसमें हल्दी भरिये।“

माँ का गुस्सा एक बार फूटा तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था-“जब इसे मना किया हुआ है कि जो काम तेरे बस में नहीं उन्हें करने में दिलचस्पी लेता ही क्यों है?”

माँ खुद भी रोये जा रही थी, और बद्बदाये जा रही थी-“ये लड़का मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर देगा, कहाँ–कहाँ नहीं इसे उठाकर फिरी, कहाँ-कहाँ कहाँ नहीं दिखाया इसे। आज कुछ चलने फिरने लगा है, गिर-गिर कर अपना ही नाश कर रहा है, लेकिन मजाल जो ये लड़का किसी की सुन ले।“

सुप्रिया दीदी ने माँ को हल्दी लाकर दी थी तो माँ ने बहते खून को साफ़ कर हल्दी भर दी थी ।

अनायास ही मेरी अँगुलियाँ आँख की भोह के उस हिस्से पर चली गयी जहाँ आज भी चोट का निशान था, मैं हल्के से मुस्कुरा दिया।

यादों का सिलसिला कुछ लम्बा ही चल निकला- चौक के बराबर में एक कोठा था जिसमें भूसा और घर का टूटा-फूटा सामान भरा होता था, उसे दुबारी कहते थे, अब दुबारी नाम का अर्थ क्या था, ये नाम क्यों पड़ा, ये तो मुझे कभी समझ ही नहीं आया, जब से मेरी याददास्त थी, मैंने उसमे कभी दरवाजा नहीं देखा था, एक किवाड़ उल्टा डालकर, स्थायी रूप से रखा हुआ था, उसमें आगे के हिस्से में मेरा टॉयलेट बॉक्स बना हुआ था, चोखट पर बैठकर ही हाजत से निपटता था, कई दोस्त मजाक बनाते, इतना बड़ा हो गया घर में फारिग होता है, लेकिन मुझे मालूम था मैं बाहर नहीं जा सकता था, जब फारिग होता, माँ चूल्हे की राख डाल जाती और फिर तसले में कूडे में भर कूड़ी पर डाल आती। दोस्तों की मजाक का मेरे पास कोई हल नहीं था, इस मज़बूरी का हल भी नहीं निकाल सकता था, ज्यादा दिक्कत तो तब होती जब घर पर कोई नहीं होता और कभी हाजत लग जाती, ऐसे में धुलवाने का काम कौन करे? मुझे लगने लगता कि कितना नारकीय जीवन वह जी रहा हूँ।

पक्का मकान जब बन गया तो पिताजी ने घर पर गड्ढे वाली फ्लस बनवा दी, फ्लस में सबको जाने की इजाजत नहीं थी, बस मैं ही जा सकता था, अब मुझे कुछ सुकून मिला था। घर के बाकी लोग सिर्फ बरसात या दस्त की स्थिति में ही इस फ्लस का उपयोग कर सकते थे। मकान तो पक्का बन गया था लेकिन अभी उस हिस्से की जमीन कच्ची ही थी, हर हफ्ते सुप्रिया दीदी को पीली मिटटी में गोबर मिलाकर लिपाई करनी पड़ती थी। इस काम में मैं दीदी की कोई मदद नहीं कर सकता था। कितनी ही बार तो ऐसा होता कि आज सुप्रिया ने गोबरी फेरी और अगले दिन ही बारिश में सब धुल गया। बरसात में कच्ची जमीन पर काही जम जाती और फिसलन हो जाती, कितनी ही बार मैं उस पर फिसलता और मुझे चोट लगती। फिर कितने ही दिन घुटनों में दर्द और स्कूल जाना बन्द।

मुझे याद आया- माँ खेत के कामो में ज्यादा ही बिजी होती तो घर के काम का बोझ सुप्रिया दीदी पर आ पड़ता, सुप्रिया से ही मैंने घर के काम-काज सीख लिए थे, मैं सब्जी काटता, दीदी बनाती, रोटी बनाते हुए वह भाई को अपने पास रसोई में बैठा लेती, मैं देखता रहता, कैसे रोटी बनती है, कैसे आटा गूंथा जाता है लोई बनाने से लेकर रोटी सेंकने तक को धयान से देखता, हाँ दीदी को रोटी चुपड़ना अच्छा नहीं लगता, वह कहती- सुदीप मैं रोटी सेकती हूँ- तू इन पर घी चुपड़ दे। कई रोटी इकट्ठी होती तो भाप की वजह से रोटी चुपड़ते हुए हाथ जलते और लाल हो जाते, कितनी ही बार मैं मना कर देता तो सुप्रिया नाराज भी हो जाती। कभी-कभी दीदी मुझसे कहती-‘सुदीप चल तू झाड़ू लगा तो मैं पोंछा लगा दूँगी।‘ बस मुझे एक काम सबसे बुरा लगता था जो सुप्रिया मुझसे अक्सर करवाती, कपडे धोते या बगड़ (दालान) धोते हुए नल से बाल्टी या टब भरवाना। इतना पानी भरने के लिए हाथ से नल चलाते हुए हाथ दर्द करते तो मुझे लगता दीदी कोई दुष्ट है जो मुझे नल चलवाकर मार ही डालेगी। कई बार ये सब काम करना अच्छा लगता लेकिन कभी-कभी मन नहीं होता, मुझे लगता ये सब काम लड़कियों के हैं, मैं क्यों करूँ? लेकिन सुप्रिया पर काम का बोझ इतना होता कि वह दिन में पढ़ भी न पाती तब मैं उसकी मदद कर देता था।

कितनी ही बातें याद करते हुए मैं कभी उदास हो जाता कभी चेहरे पर हँसी आ जाती। अभी विचारो की इस श्रृंखला से बाहर नहीं आना चाहता था।

याद आया- मैं आठवी कक्षा में पढता था, मेरे गॉव के एक और लड़के का नाम सुदीप था, स्कूल में इनफार्मेशन आई कि सुदीप की माँ को उसके ही मामा ने गोली मार दी, मुझे विश्वास ही नहीं हो सकता था, सुबह ही तो माँ को सही सलामत छोड़कर आया था और मामा भी नहीं आये हुए थे, लेकिन माँ नाम ही ऐसा था कि रुलाई फूट गयी। लेकिन जल्दी ही पता चला कि ये घटना दूसरे सुदीप की माँ के साथ हुई, उसके मामा ने अपनी सगी बहन को गॉव के पास ही गोली मार दी। ये एक दुखद घटना थी, मेरा मन अपने मित्र के लिए भी व्यथित था।

मैंने फिर से घडी पर निगाह डाली, ग्यारह बजने वाले थे। मन बनाया कि आज कॉलेज नहीं जाऊँगा। चादर में खुद को ढका और एक अंगडाई लेकर सोने की कोशिश करने लगा, अचानक दरवाजे की कुण्डी बजी, बाहर जाकर देखा, बचपन का दोस्त शेखर था। बड़ा घबराया हुआ। मैंने पूछा था-“क्या हुआ शेखर, आज तू यहाँ मेरे कमरे पर? और ये तेरी साँसे क्यों उखड रही हैं?

“सुदीप तुझे अभी मेरे साथ बसंती नर्सिंग होम चलना होगा।“

“पर क्यों?”

“अक्षरा, वहाँ एडमिट है।“

“शेखर, अगर अक्षरा एडमिट है तो वहाँ उसके घर वालो को होना चाहिए वहाँ मेरा क्या काम? और ये खबर देने तू ही क्यों आया?”

“पूरी बात सुनेगा या अपनी ही कहता रहेगा?”

“हाँ बता बात क्या है, क्यों एडमिट है?”

“उसने मेंड़ेक्स की दस गोलियाँ रम की बोतल से खा ली, उसके पापा-मम्मी दोनों खेत में गए हुए थे, उसकी हालत बिगड़ रही थी। मैं उसे अपने ट्रेक्टर में डाल लाया हूँ, पता नहीं भी बच पायेगी या नहीं?”

“अबे यार, मेंड़ेक्स ही खाई हैं न, नींद की गोली है दस बाढ़ घण्टें असर रहेगा, ठीक हो जाएगी तू ज्यादा चिंता मत कर।“

“कमाल है यार तेरा भी, वो तेरी बचपन की दोस्त है, और तू उसे देखने भी नहीं जायेगा?”

“तू ये कहना चाहता है-मैं उसे देखने नर्सिंग होम जाऊँ, ताकि जो मेरे और उसके बारे में नहीं जानते उन्हें भी पता चले कि पुराने आशिक पता लेने आये हैं और साथ में ये भी बात उछले कि सुदीप की वजह से ही अक्षरा का ये हश्र हुआ है।“

“तू क्या समझता है कि लोगो में ये चर्चा नहीं है, आधे लोगो में ये चर्चा है कि सुदीप की वजह से उसने खुदकुशी की कोशिश की, कुछ ही जानते हैं कि ये पंकज फौजी की वजह से हुआ है। देख मैं उसे नर्सिंग होम छोड़कर आ गया हूँ मेरा ट्रेक्टर तेरी गली के बाहर ही खड़ा है, अब तो उसके घर वाले भी आ गए होंगे। तू कहे तो दोनों चले।“

“न भाई, तू ही जा, मुझे अपना जनाज़ा निकलवाने का इतना भी शौक नहीं।“

शेखर कुछ देर बातचीत करके चला गया था, लेकिन शेखर के जाते ही मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। कैसे अक्षरा ऐसा कर सकती है, कितना समझाया था उसे कि ये जीवन यूँ ही बर्बाद करने के लिए नहीं मिला, आज दूसरी बार था जब मेरा भगवान से विश्वास खिसका था। ये घटना भी मेरे नास्तिक बनने की कड़ी में जुड़ गयी थी, बहराल मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था, मैंने तय किया कि अक्षरा से मिलने नर्सिंग होम जाऊँ, दूसरे पल ख्याल आया-“सुदीप पागल मत बन, फोटो वाली घटना से पहले ही वह काफी बदनाम है और अब तो मामला ख़ुदकुशी करने का है, उसके घर वाले भी आ चुके होंगे, क्यों आफत मोल ली जाए और फिर जब से उसने पंकज से दोस्ती की है, तब से उनके बीच रह ही क्या गया? किस रिश्ते से किस विश्वास से वह उससे मिलने जाए?”

वैसे ही आज कॉलेज जाने का मन नहीं था। इस घटना ने अन्दर तक हिला दिया था, कुछ बुरे विचार भी मन में आने लगे थी, पूरा पत्ता मेंड़ेक्स और वो भी रम के साथ? एक ही गोली पल्स पर इफेक्ट डालती है और ये तो पूरा पत्ता, आखिर उसे इतनी गोलियाँ मिली कहाँ से? बिना डॉ के प्रेसक्रिपशन लिखे तो कोई केमिस्ट भी नहीं देगा। मैं भी क्या-क्या सोचने लगा। कॉलेज नहीं गया, बस सोचता रहा जाने क्या होगा?

शाम तक खबर मिली कि अक्षरा की हालात खतरे से बाहर है लेकिन ठीक होने में अभी समय लगेगा। दो दिन बाद अक्षरा को छुट्टी मिल गयी थी।

बी.एस.सी. सेकिंड इयर भी पूरा होने को था, एग्जाम शुरू होने वाले थे। एक क्लासमेट के साथ बबलू गॉव आया था, भरी जुलाई की गरमी थी, यूँ तो बबलू भी क्लासमेट था लेकिन वह कॉलेज कम ही आता था इसलिए उससे बातचीत भी कम ही थी। दोनों मिले तो ऐसा लगा जैसे कोई अपरिचित मिल रहे हैं। बातो-बातो में पता चला कि वह हरिद्वार का रहने वाला है और दूर की वजह से एग्जाम की बडी परेशानी है, दूर से एग्जाम देने आना मुनासिब नहीं होगा। यूँ तो मैं खुद भी निर्णय ले सकता था, लेकिन मैंने पिताजी से पूछना मुनासिब समझा। सहृदय पिताजी कैसे मना कर सकते थे? पिताजी ने परिचय किया तो पता चला कि पिताजी के फूफाजी और बबलू के मामा एक ही व्यक्ति थे। अब मामला रिश्तेदारी का भी था। पिताजी ने कहा-“दोनों साथ रहकर पढाई करो और आराम से एग्जाम दो, किसी बात की कोई परेशानी हो तो मुझे बताओ। दोनों का दोनों टाइम का खाना पहुँच जाया करेगा।“

बबलू ने खाने के लिए आनाकानी करते हुए कहा- “खाने की कोई परेशानी नहीं, बाहर भी खाया जा सकता है, बस रहने के प्रबन्ध की ही चिंता थी।“

“अरे, ऐसे कैसे हो सकता है, सुदीप का खाना तो जाता ही है फिर क्या फर्क पड़ता है अगर एक और बच्चे का खाना चला जायेगा तो, और तुम तो रिश्तेदार भी हो।“

फैसला हुआ कि अब साथ रहकर एग्जाम देने हैं, बबलू के साथ रहते हुए अच्छा टाइम पास होता था, वह पढने में भी अच्छा था, शांत स्वाभाव, गौर वर्ण, छरहरे बदन का लड़का बबलू पूजा पाठ में ज्यादा विश्वास करता था, जबकि वहीँ मैं पूजा-पाठ सब छोड़ चुका था। धर्मनिष्ठ माँ के होते हुए भी अब मुझ पर पिता का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा था। मैंने देखा पिताजी कभी मन्दिर नहीं जाते थे, किसी व्रत में विश्वास नहीं करते थे, हाँ इतना अवश्य था कि हर त्यौहार वो विधिवत मनाते थे, इस तरह मैं अर्ध-नास्तिक बन गया था, यानि मेरी धर्म और ईश्वर की अपनी ही धारणा बनने लगी थी, जिस पर मैं अब किसी से भी तर्क तक करने लगता था।        

इस सब के पीछे कितनी ही घटनाएँ थी, चूँकि मेरी धर्म के प्रति धारणाएँ बदल रही थी और लगता था कि कबीर जैसे महापुरुष सही कह गए हैं कि ईश्वर किसी मन्दिर की मूर्ति या किसी मस्जिद में तो हरगिज विराजमान नहीं हो सकताजब 12वी और बाद में बी.एस.सी कर रहा था तो पास की मस्जिद की अजान से भी परेशानी होती थी और मन्दिर के भोंपू से भी। मेरा तब ये ही तर्क होता कि इस भोंपू से पहले भी गॉंव में नमाज भी पढ़ी जाती थी और मंदिर में पूजा भी होती थी अब कौन सा आपका खुदा या भगवान ज्यादा खुश होने लगा?

असल में गॉव में एक हफिजी आये और बड़े ताव में एक भोंपू लगाया उससे पहले कहीं कोई भोंपू नहीं बजता था और पहले भी लोग मस्जिद में नवाज पढ़ते थे। गॉव में ये चर्चा का विषय बना,  हालाकि गॉव में कभी मजहवी दंगे नहीं हुए।

उसी के साथ एक घटना और घटी, गॉव में हमारे पुरखों का खुदवाया हुआ एक पक्का कुआ था जिसका पानी कभी पूरे गॉव में इस्तेमाल होता था, पैसे के ज्यादा प्रवाह के कारण सबके घर में नल हो गए तो कुए से पानी निकलना बन्द हो गया था, अब कुआ सिर्फ शादी या बच्चे के जन्म के समय के संस्कारों के लिए ही इस्तेमाल होता था। हुआ ये कि इस कुए की मुंडेर पर कुछ आवारा लड़के बैठते तो निर्णय हुआ कि कुए को छाप कर इस पर मन्दिरर बना दिया जाए, पैसे इकट्ठे हुए और मन्दिर बना दिया गया। जब गॉव के बाहर भव्य शिव मन्दिर था। मन्दिर के लिए धन इकठ्ठा किया जा रहा था, जिसमे गॉव की पश्चिम पट्टी को शामिल नहीं किया गया था। मैंने कहा भी कि जब गॉव में शिव मन्दिर है तो उसका जिवनोद्दार किया जाना चाहिए, वैसे भी इबादत के स्थान गॉव के अन्दर न होकर बाहर ही सही है, लेकिन मैं ठहरा बालक तब मेरी कौन सुनता? सो मन्दिर का निर्माण हो गया। अब मन्दिर में भी भोंपू लग गया, और फ़िल्मी स्टाइल के गानों से भगवान की उपासना होने लगी, भोले और भांग के गानों का शोर होने लगा।

इन दोनों इबादत स्थलों से गॉव के सब स्टूडेंट्स की पढाई पर बड़ा फर्क पड़ रहा था, लेकिन ये बदस्तूर चलते रहे। पिताजी ने भी विरोध किया, कितनी ही बार मन्दिर जाकर भोंपू  बन्द कराया लेकिन दो-चार दिन बाद वही स्थिति हो जाती थी।

मुझे ये सब भी नागवार गुजरता, जब कभी भी किताबे लेकर गॉव पहुँचता, मन्दिर और मस्जिद दोनों के ही लाउडस्पीकर से परेशानी होती  एक बात और नोट की- गॉंव भर के वही गुंडा तत्व जो कुए की मुंडेर पर बैठे होते थे वो ही अब मन्दिर में बैठते, भोंपू बजाते और भांग पीते,  इव-टीजिंग की भी शिकायत मिलती। पढने वाला हर बच्चा परेशान था।

मैं तो गॉव लगभग छोड़ ही चुका था लेकिन बाकी लोगो के लिए ये भी एक तंगी का सबब था ऐसा मैं महसूस कर रहा था

कोई कुछ भी कहे मुझे धर्म के इस रूप से आपत्ति होने लगी थी, मेरा मानना था कि आप पूजा करें लेकिन दूसरों को परेशान करने का अधिकार आपको किसी ने नहीं दिया।

एक घटना और प्रमुख हुई, हालाकि पूरा गॉव अमन-चैन-परस्त था लेकिन एक व्यक्ति बड़ा ही कट्टर था, उसके बारे में ये बात प्रचलित थी कि कहीं भी कोमी दंगे हों, उसके यहाँ असला-बारूद-तेज़ाब आदि आना शुरू हो जाता था। वह कुछ अन्य लोगो को भी बरगलाकर धार्मिक रूप से भड़काता था, गॉव के दूसरे धर्म के लडको की निगाह उस पर थी। १९९२ के अयोध्या दंगो का प्रभाव देश के लगभग हर शहर पर पड़ा था। अब पहले जैसा आपसी शौहार्द नहीं रहा गया था। उसी घटना का प्रभाव ये हुआ कि सक्षम मुस्लिम परिवार गॉव छोड़कर शहर या दिल्ली का रुख करने लगे। गॉव में वही परिवार टिके रहे जो खेती या मजदूरी पर केन्द्रित थे।

१९९२ की घटना का ही प्रभाव था कि उस व्यक्ति विशेष को रात के समय घात लगाकर मार दिया गया था। किसने मारा क्यों मारा ये बात कोई नहीं जान पाया, हाँ इतना जरुर गॉव भर में सुना गया कि हमलावर उसके मरने की अवस्था में छोड़कर चले आये थे, लेकिन सूचना मिली कि किसी ने उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया है तो उसकी मौत का पूरा-पूरा इंतजाम करने हेतु बहुत ही गोपनीय तरीके से पैसे का इंतजाम करके मौत की इबारत लिखवा दी गयी थी।

मेरे मन में इस घटना ने धर्म के इस घिनोने रूप के प्रति घृणा भरने में आग में घी का काम किया था। जब मैं बबलू को या अन्य किसी को पूजा करते देखता तो मुझे ये सब मात्र दिखावा लगता, मुझे लगता ये धर्म का रूप नहीं, लेकिन असल रूप क्या है इस लेवल पर नहीं पहुँच पाता था, मैंने बुद्ध के बारे में थोडा बहुत इधर-उधर से पढ़ा जरुर था लेकिन कोई पुख्ता ज्ञान अभी नहीं था, लेकिन बुद्ध की बाते अन्य धर्मो से अलग लगती, फिर मैं सोचता कि लोगो ने तो बुद्ध जैसे अच्छे खासे इन्सान को भी अवतार घोषित कर रखा है। तब और अधिक कन्फ्यूज हो जाता।

क्रमशः 

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