लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।
ज़रुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है...
(इसी साक्षात्कार से) - सन्दीप तोमर
(सन्दीप तोमर देश की राजधानी दिल्ली में रहकर साहित्य सेवा कर रहे
हैं, मूल रूप से वे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गाँव से हैं। लम्बे समय से
लेखन से जुडे रहे हैं, लघुकथा पर अध्ययन और लेखन उन्हें विशिष्ट
पहचान देता है। लघुकथा की बारीकियों पर उनके आलेखों को देखा जा सकता है, कितने ही लेखक उनसे लघुकथा सीख साहित्य साधना कर रहे हैं। वर्तमान
में हिन्दी उपन्यासों से उन्होंने साहित्य में एक अलग पहचान बनायीं है,
चंद्रेश छतलानी ने उनसे साक्षात्कार किया, श्री तोमर ने इस साक्षात्कार में बेबाकी से
ईमानदार उत्तर दिए हैं। आपके उत्तरों में लघुकथा विधा की उन्नति की कामनाएं सहज ही
परिलक्षित हो रही हैं। इस प्रश्नोत्तरी में वरिष्ठ लघुकथाकारों
को उद्धृत करने के साथ-साथ मध्यम स्थापित और नवोदित रचनाकारों यथा सुश्री शोभना श्याम, सुश्री सीमा सिंह, सुश्री मेघा राठी, श्री दिलीप कुमार, सुश्री पूजा अग्निहोत्री, श्री कुमार गौरव, श्री मृणाल आशुतोष, श्री हेमंत राणा, सुश्री अंतरा करवड़े, सुश्री अनघा जोगलेकर, सुश्री उपमा शर्मा आदि की प्रशंसा भी खुले मन से की है, जो कि उनके विस्तृत अध्ययन का परिचायक है।)
आइए रूबरू होते हैं एक अनोखे साक्षात्कार से :-
सन्दीप तोमर: 1986 में सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब ‘पेड़-पौधो’ और ‘भूत-प्रेतों’ को माध्यम बनाकर कहानीनुमा कुछ छोटी रचनाएँ लिखी थी जो अमर उजाला
में प्रकाशित जरुर हुई थी लेकिन उन पर किसी सहपाठी का नाम प्रकाशित होता था, हालाकि उनमें लघुता थी और कथा भी अवश्य थी फिर भी मैं उन रचनाओं को
लघुकथा नहीं कह सकता, अब वो सब विस्मृति का हिस्सा हैं, जिसे लेखन माना जाए उस फ्रेम में 2001 में लिखना शुरू हुआ, इस मायने में पहली प्रकाशित रचना “समझदार थी, जिसमें एक विद्यालय निरीक्षक और
अध्यापक का संवाद है, इसे “कथा संसार” पत्रिका के 2003 के स्कूल विशेषांक अंक में स्थान मिला, उससे बाद तो लगातार देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में लगातार
प्रकाशन होता रहा। 'कामरेड संजय' लघुकथा संग्रह भी आया था लेकिन प्रकाशक की कारगुजारियों के चलते
उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है। वर्ष 2020 के आरम्भ में दो संग्रह क्रमशः 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' पाठकों के बीच होंगे।
चंद्रेश छतलानी: क्या लघुकथा की कोई ऐसी विशेष शैली है, जो आपको बहुत प्रभावित करती हो?
सन्दीप तोमर: अधिकांश लोग विवरणात्मक शैली और आत्मकथायात्मक शैली
को अधिक अपनाये हुए हैं, जिसे मैं लघुकथा के विस्तार में कुछ
हद तक बाधक मानता हूँ, लघुकथा लेखक को अन्य शैलियों को भी
अपनाना चाहिए। साहित्य की शैलियों में एक उपशैली है- ‘कामेडी’, जिसमें बहुत कम लघुकथाएं लिखी गयी
हैं। लघुकथाओं में ‘डायरी शैली’ में भी लघुकथा लिखने का चलन अभी नहीं आया है। मुझे ये दोनों ही
शैलियाँ अधिक प्रभावित और आकर्षित करती हैं।
लघुकथा में आत्मकथ्यात्मक शैली में रचनाकार कई बार कथा-सर्जन करता
है, यह एक बहुत ही मुश्किल शैली है जिसमें
रचनाकार जानकारी के अभाव में स्वयं को नायक के तौर पर प्रदर्शित करता है जबकि इस
शैली में ऐसा नहीं करना होता, अधिकांश लेखक यहाँ चूक कर जाने के कारण आत्म-विवेचना का शिकार हो जाते हैं। मोनोलॉग शैली (स्वयं से
बात) में भी लघुकथा लिखते हुए रचनाकार वही गलती दोहरा देता है। कहा जा सकता है कि
इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। यहीं से लेखन में लेखकीय प्रवेश होता है, लेखक को इससे बचना होगा, कुछ रचनाकार तो इन दोनों में अंतर को भी नहीं समझते। आत्मकथ्यात्मक
शैली या मोनोलोग को लेखक को बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही अपनाया जाना चाहिए।
लेखकीय प्रवेश न हो इसका भी प्रयास किया जाना चाहिए।
चंद्रेश छतलानी: क्या लघुकथा में नए मुहावरे गढ़े जा सकते हैं? किसी उदाहरण से समझाइये।
सन्दीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी, साहित्य नया कुछ गढ़ते रहने से ही समृद्ध होगा, यहाँ दो बातें हैं एक नया दूसरा मुहावरा, मेरी समझ से लघुकथा लेखन में दोनों की ही भरपूर सम्भावना है। अजय
अमिताभ सुमन की एक लघुकथा है ”फटा हुआ ईमान” यह शीर्षक अपने आप में एक नया मुहावरा है, जिसे बहुत अधिक चिन्तन मनन के उत्पन्न किया गया हो ऐसा भी मुझे
नहीं लगता, इसका जन्म रचना-प्रक्रिया के साथ ही
हुआ लगता है।
चंद्रेश छतलानी: आजकल कई रचनाओं को इसलिए भी खारिज कर दिया जाता है
क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की होती हैं और उनसे कुछ अधिक पंक्तियों की
रचनाओं की तरह स्पष्ट कथ्य का सम्प्रेषण नहीं कर पातीं। मेरा प्रश्न यह है कि रचना
यदि कथ्य का संकेत तो दे रही है, लेकिन कथ्य स्पष्ट नहीं कहा गया, तब क्या उसे बदलना या खारिज कर देना चाहिए?
सन्दीप तोमर:चंद्रेश छतलानी जी पहली बात ये ही सही नहीं कि रचनाओं
को इसलिए खारिज कर दिया जाएँ क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की हैं, सवाल ये है कि ख़ारिज करने के मापदण्ड किसने बनाये? अभी कुछ समय पहले डॉ अशोक भाटिया जी का एक लेख काफी सुर्ख़ियों में
रहा, मुद्दा था लघुकथा की शब्द सीमा को
लेकर, उक्त के प्रतिउत्तर में अनिल शूर का ‘लघुवादी लघुकथा’ पर लेख आया और इस तरह पूरा लघुकथा जगत
दो खेमो में बंट गया, एक खेमे में डॉ अशोक भाटिया के समर्थन
में लोग थे तो दूसरे अनिल शूर के पक्षधर बने, हाँ कुछ मेरे और सुभाष नीरव जैसे लोग भी थे जिनका मानना था कि रचना
अपनी शब्दसीमा खुद तय करती है, लघुकथा में शब्दों की कोई सीमा
निर्धारित करना इसके साथ अत्यचार ही है। हमें ‘मंटो’ और ‘खलील जिब्रान’ की लघुकथाओ को नहीं भूलना चाहिए जो
आकार में छोटी होकर भी मुकम्मल लघुकथाएं हैं। मैंने भी अतिलघु आकार की लघुकथाएं
लिखी हैं। अब आते हैं आपके मूल प्रश्न पर- कथ्य का सम्प्रेषण पंक्तियों की संख्या
पर नहीं रचना की बुनावट पर निर्भर करता है, आज कितनी ही लम्बे आकार की, यूँ कहो अधिक पंक्तियों की रचनाएँ भी कथ्य को उभार नहीं पाती कारण(?), इनकी बुनावट में कसावट नहीं होती, अत्यधिक शब्द खर्च करके भी वहाँ रचनाकार का हित सिद्ध नहीं होता।
फिर किसी भी रचना में सुधार की गुन्जायिश हमेशा बनी रहती है, यदि कथ्य का संकेत मिल रहा है लेकिन कथ्य उभरकर नहीं आया तो
रचनाकार उस पर पुनः काम करे, ख़ारिज करने का अधिकार भी अंततः रचनकार
का ही है, आलोचक रचना पर अपनी राय प्रकट कर सकता
है, आलोचक भी रचना के विश्लेषण का अंतिम
अधिकारी नहीं, पाठक की राय सर्वोपरी है। फिर रचनाकार
लिख किसके लिए रहा है ये भी महत्वपूर्ण है।
चंद्रेश छतलानी: समकालीन लघुकथा में व्यंग्य किस हद तक ढाला जा सकता है?
सन्दीप तोमर: जब ये कहा जाता है कि लघुकथा का जन्म विसंगति से होता
है तो यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य का जन्म तो होता ही विसंगति से है। लघुकथा
में शिल्प का महत्व अन्य विधाओ से कहीं अधिक है। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और
विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था
कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई और उन्होंने ‘व्यंग्य’ को शैली की तरह इस्तेमाल किया है, जिसे ‘व्यंग्यात्मक शैली’ कहा जाता है, मेरी समझ से लघुकथा में सीधे-सीधे
व्यंग्य का प्रयोग विधागत न होकर इसे शैली के रूप में ही अपनाया जाए। अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, हरनाम शर्मा. अनिल शूर जैसे कितने ही नाम हैं जिन्होंने
व्यंग्यात्मक शैली को अपनाकर लघुकथाएं लिखी हैं। मैंने भी इस शैली को कई दफा
अपनाया है। इन व्यंग्य लघुकथा लेखकों ने समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया है।
अशोक भाटिया की एक लघुकथा कम शब्दों यानि दो-तीन पंक्ति की लघुकथा
है,
“अपनों की गुलामी”-
सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए
जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात्
स्वतन्त्रता दिवस।
यह लघुकथा अपने आपमें एक स्वतंत्र व्यंग्य भी है और इसमें शिल्पगत अनुप्रयोग
भी आप देख सकते हैं। यह विधा के मानको पर भी खरी उतरती है।
चंद्रेश छतलानी: इन दिनों आप किस तरह की ऐसी लघुकथाएं पढ़/देख पा रहे हैं, जिन पर अंकुश लगना चाहिए?
सन्दीप तोमर: इस सवाल के जवाब से पहले मैं अधिकांश महिला रचनाकारो
की मन:स्थिति पर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा, जब महिला साथियों ने लिखना शुरू किया या करती हैं उस समय उनके
सामने नारी की सामाजिक स्थिति का फलक होता हैं जाहिर हैं कथानक भी उसी पृष्ठभूमि
से आते हैं, शुरुआती लेखन तक ये सब ठीक है लेकिन
कुछ अपवाद छोड़ दूँ तो अधिकांश उस पृष्ठभूमि से इतर अपनी दृष्टि को ले जाने में
जाने कौन सा जोखिम मानती हैं। शोभना श्याम, सीमा सिंह, मेघा राठी जैसी रचनाकार इस मिथ को
तोडती हैं तो लघुकथा विधा की समृद्धि में उनका योगदान दर्ज होता है, जो व्यापक दृष्टि के साथ सृजन करेगा वो आगे तक जायेगा।
एक बात और है, लघुकथा विधा में जो मुझे इसके विकास
में बाधक लगती है वह है विषय या चित्र देकर लिखवाना। रचना सार्थकता तभी पा सकती है
जब वह अनुभव और अवलोकन का हिस्सा बने, इस तरह का लेखन तो सरासर कृत्रिमता है, जब तक लेखक स्वयं रचना से नहीं जुड़ेगा, उसका सामान्यीकरण नहीं करेगा तो पाठक रचना से अपना जुडाव कैसे
महसूस करेगा, इसका तात्पर्य ये नहीं कि अपवाद से
रचना का जन्म नहीं हो सकता, अपवाद से भी मुकम्मल रचनाओ का जन्म
हुआ है / होता भी है लेकिन प्रतिशतता कम है। मेरे विचार से ये कृत्रिम लेखन बंद
होना चाहिए।
चंद्रेश छतलानी: समकालीन लघुकथाओं में जिस तरह के विषय उठाये जा
रहे हैं, क्या उससे आप
संतुष्ट हैं?
सन्दीप तोमर: दो टूक शब्दों में कहूँ तो एकदम संतुष्ट नहीं हूँ, विषयों में मुझे विविधता दिखाई नहीं देती और अलग विषय कुछ अलग होते
भी हैं तो या तो रचनाकार का ट्रीटमेंट लचर होता है या अत्यधिक लिखने की चाह में
दोहराव का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ लोगो
ने पौराणिक पात्रों पर भी कुछ लघुकथाएं लिखी हैं लेकिन वहाँ भी पूर्ववर्ती लेखको
को ही कॉपी किया गया है। बस थोड़ी अलग रचना दिखाने की चाह में फेरबदल अवश्य किया
जाता है। जबकि होना ये चाहिए था कि नए पात्रों की रचना की जाती, या इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं को केंद्र में रखकर नया काम किया
जाता। असल में लघुकथा लेखक शिल्पगत प्रयोग तो कर रहा है लेकिन ऐतिहासिक पात्रों की
रचना करने या नूतन पौराणिक पात्रों की रचना करने में खुद को असमर्थ पाता है।
मेरी दृष्टि में अंचल विशेष यानि ‘आंचलिक पात्रों’ को आधार बनाकर भी बहुत कम लघुकथाओं की
रचना हुई है, और ‘दिव्यांग व्यक्तियों’ की समस्याओं पर भी बहुत कम लिखा गया है। मुझे लगता है इन विषयों पर
अधिक लिखे जाने की जरुरत है। ‘थर्ड जेंडर’ पर कुछ काम हुआ तो मन को अच्छा लगा, ऐसी ही और भी समस्याएँ हैं जिन पर लिखा जाना चहिये।
चंद्रेश छतलानी जी मुझे एक बात और महसूस होती हैं, अधिकांश रचनाकार पारिवारिक रिश्तो, परवरिश, ओल्ड ऐज होम की जरुरत इत्यादि
समस्याओं पर भी लिख रहे हैं लेकिन इन विषयों पर बहुत नकारात्मक लिखा जा रहा है, आप लेखक से बात करें तो जवाब मिलता है कि यही यथार्थ है, मैं ऐसे लेखकों से पूछना चाहता हूँ क्या समस्याओं का रहस्योद्घाटन
करना ही रचनाकार का एक मात्र उद्देश्य है? फिर रचनाकार उसमें कहाँ हैं, उसके दायित्व क्या हैं? होना ये चाहिये कि रचनाकार इन विषयों पर अपनी कलम से समाधान भी
सुझाये या फिर ऐसा कुछ रचे जो नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद हो। हाल ही में परिवार
में बच्चो के दुर्व्यवहार के कारण माता-पिता को ओल्ड ऐज होम चले जाने या कमरा
किराये पर लेने जैसी नसीहत की रचनाएँ पढ़कर मन खिन्न हुआ, मैंने सुभाष नीरव जी से वायदा किया कि इसके उलट लिखकर कोई संदेशपरक
रचना दूँगा, तब “संस्कार” लघुकथा लिखी जिसे सतीश राठी जी ने ‘क्षितिज’ पत्रिका में स्थान दिया, तो लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ
सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।
चंद्रेश छतलानी: आपके अनुसार लघुकथाओं का अपने पाठकों तक सम्प्रेषण
हेतु निम्न तीनों में से बेहतरीन माध्यम क्या और क्यों है? प्रिंट, डिजिटल टेक्स्ट
(सोशल मीडिया, ब्लॉग, वेबसाइट आदि पर) अथवा ऑडियो-वीडियो।
सन्दीप तोमर: साहित्य की चाहे कोई भी विधा हो, रचना अगर दमदार है तो वह अपना पाठक वर्ग खुद तलाश कर लेती है।
निसंदेह प्रिंट मिडिया एक एतिहासिक दस्तावेज होता है, उसका अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग है, अगर ऐसा नहीं होता तो लघुपत्रिकाओ की इतनी बाढ़ न आती। वर्तमान में
डिजिटल टेक्स्ट ने भी अपना एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार किया है लेकिन सोशल मिडिया
की एक समस्या है - अधिकांश पाठक वही है जो या तो लेखक हैं या फिर लेखक बनने की होड़
में शामिल हैं। अगर इन दोनों माध्यमो की तुलना करूँ तो मैं प्रिंट मिडिया को अधिक
महत्व दूँगा उसका कारण है इसका सर्वकालिक होना, जो एक बार प्रकाशित हुआ वह सर्वकालिक हुआ, जबकि डिजिटल के साथ समस्या है, इसकी अवधि बहुत लम्बी नहीं है, एक दिन या तो लेखक ही उससे उकता जाता है या फिर पाठक किनारा कर
सकता है। इन दोनों से इतर जो तीसरे माध्यम की बात आपने की है, ऑडियो- वीडियों इसका प्रभाव छोटे फॉर्मेट की विधा में ज्यादा कारगर
है। लघुकथा को यूट्यूब पर लाने में ‘ललित मिश्र’ ने शुरुआती काम किया, तदुपरांत मैंने “अफसाने साहित्य के” चैनल शुरू किया, उसके बाद सुना है रवि यादव ने भी इस
क्षेत्र में कुछ काम किया है, अन्य चैनल भी होंगे लेकिन ये बाद के
प्रयास हैं।
अगर दोटूक शब्दों में कहूँ तो तीनो का महत्व समय के हिसाब से हैं।
अभी तो सही हो या गलत डिजिटल सबके सिर चढ़कर बोल रहा है।
चंद्रेश छतलानी : आपके अनुसार यदि पूर्व पीढ़ी से तुलना करें तो
समकालीन लघुकथा के लिए लेखकों, समीक्षकों, प्रकाशकों और
पाठकों की कौनसी प्रवृत्ति हितकारी है और कौनसी अहितकारी?
संदीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी मैं हमेशा से दो बातों का विरोध
करता रहा हूँ, एक- खेमेबाजी, दूसरा सहयोग राशि से छपने वाले संकलन, ये दोनों ही लघुकथा जैसी सशक्त और आधुनिक विधा के विकास में बाधक
होती हैं। इनसे गुणात्मकता में तो बेतहासा वृद्धि हुई है लेकिन इससे गुणात्मकता
अधिक प्रभावित है, हमें गुणात्मकता पर अधिक ध्यान देना
चाहिए। अच्छा ये है कि इसी भीड़ से कुछ क्रीम भी निकल कर आ रही है, दिलीप कुमार, पूजा अग्निहोत्री, कुमार गौरव, मृणाल आशुतोष, हेमंत राणा, अंतरा करवड़े, अनघा जोगलेकर, उपमा शर्मा, इसी भीड़ से निकलकर आये हैं, और समुचित योगदान दे रहे हैं। बस अपनी लय को बनाये रखने की जरुरत
है।
चंद्रेश छतलानी: उचित अध्ययन तो हर लघुकथाकार को करना ही चाहिए, अच्छी पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। इस बात के अतिरिक्त नए लघुकथाकारों
के लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे?
सन्दीप तोमर: देखिये, एक समय तक पढना विधा के अंगोपांग को समझने के लिए जरुरी है, उसके बाद पढना भी बहुत मायने रखता हो ऐसा मुझे नहीं लगता, हाँ, अगर आप एक अच्छे पाठक हैं तो ये अच्छी
बात है, कई बार देखने में आता है कि अधिक पढने
से खुद का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली
को ही अपनाने लगते हैं।
जरुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है, अपनी बात कुछ यूँ कहकर समाप्त करूँगा –
हे अहिल्या-
खुद
की राह बना
यहाँ उद्धार करने
राम न आएंगे।
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